About Me

"फ़ाको को भी मस्ती में जीते हैं, बस्ती-२ फरयाद नहीं करते सच कहते हैं अथवा चुप रहते है, हम लफ़्ज़ों को बर्बाद नहीं करते"......... . अब ख़ुद के बारे में जियादा कुछ कहूँ तो लफ्ज़ बर्बाद ही होंगे. आज तक ऐसा कुछ किया नहीं, जिसे फक्र के साथ कह सकूँ और वैसे भी ख़ुद के बारे में ख़ुद क्या कहें नहीं जानता. आज तक ख़ुद के लिए जुस्तजू ही बना हुआ हूँ , अब उस दरम्याँ जो कुछ थोडा बहुत जाना है, या जानने का भ्रम हुआ है उसे लफ़्ज़ों की सजा क्यों दें.

Wednesday, September 5, 2012

शिक्षा और बाजारवाद



शिक्षा क्या है और ये क्यों जरूरी है? क्या साक्षरता ही शिक्षा का मापदंड है? ऐसे कई सवाल मन में उठते हैं और अब तो हमें शिक्षा का अधिकार भी मिल चुका है, बहुत सारे स्कूल, कॉलेज खुल चुके हैं. कई विद्यालय, महाविद्यालय बने, महाविद्यालय विश्वविद्यालय बन गया और फिर विश्वविद्यालय, केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने कि होड़ में लग गया. सरकार कि कई नीतियों के तहत शिक्षण संस्थानों में आरक्षण भी है जिससे कि समाज का कोई भी तबका शिक्षा से वंचित न रहे. प्रारंभिक स्तरों पर भी शिक्षा को जन-जन में लाने के लिए सरकार के पास अपने स्कूल हैं, कई नीतियां हैं, वो कितने कारगर हैं इस पर अभी विचार नहीं करूँगा. हम और आप भी अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में दाखिला करवाने को अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं. पर सवाल उठता है ये हाय-तौबा क्यों?
यह एक बड़ा गंभीर प्रश्न है. कल ललित कुमार (प्रणेता- कविता कोष) का इसी विषय पर एक लेख पढ़ रहा था जहाँ उन्होंने शिक्षा की मूल भावना के बारे में बताने कि कोशिश की और एक बहुत सूक्ष्म और समीचीन विषय की ओर भी द्दृष्टि ले गए कि कैसे शिक्षा आज शिक्षाविदों के हाथों से से फिसलते हुए बाज़ार के हाथों में जा रही है और हम इसे काल कवलित होते हुए देख रहे हैं. वो लिखते हैं कि

शिक्षा के यूं तो कई लक्ष्य हो सकते हैं लेकिन शायद सबसे अधिक मान्य लक्ष्य दो हैं: एक तो व्यक्ति को एक बेहतर इंसान व नागरिक बनाना और दूसरे उसे आजीविका कमाने के लिए तैयार करना.  म सभी जानते हैं कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। प्राणी है, इसलिए जीवित रहने के लिए भोजन इत्यादि तो वह किसी भी तरह जुटाएगा ही क्योंकि यही प्रकृति का नियम हैइसका आशय यह है कि जीवित रहने के लिए प्राणी को प्रकृति ने तैयार किया हुआ है; लेकिन प्रकृति ने प्राणी को सामाजिक रहने के लिए तैयार नहीं किया और यही काम  शिक्षा को करना होता है.” मुझे नहीं लगता कि इस विषय पर मेरे साथ कोई भी असहमत होंगे कि इस तरह शिक्षा का मूल उद्देश्य एक बेहतर इंसान और नागरिक बनाना होना चाहिए न कि पेट मात्र पालने कि विधि क्यूंकि उतना ज्ञान तो प्रकृति ने और जीव-जंतुओं को भी दे रखा है बस हमारा सामाजिक बोध ही हमें उनसे अलग करता है.

पर क्या आज हम बच्चों को उस तरह कि शिक्षा दिला पा रहे हैं? शिक्षा व्यापारियों ने आज प्रारंभिक कक्षाओं को भी छोटे-२ खंडो में बाँट दिया है ताकि जल्द से जल्द उनकी कमाई शुरू हो सके और उन कक्षाओं में नामांकन के लिए ऐसी भीड़ और ऐसा तमाशा होता है जितना आज तक मेरे नामांकन प्रक्रियाओं को कुल मिलाकर भी नहीं हुआ. अभिभावक केवल इस बात से खुश हैं कि उनके बच्चे बोलना सीखने से पहले अंग्रेजी के दो-चार शब्द सीख गए, वो सिर्फ इस बात से खुश हैं कि उनके बेटे-बेटी कि स्कूल में ए.सी. है और ढेर सारी सुविधाएं हैं. मुझे ये समझ नहीं आता कि उन्हें ये क्यों नहीं दीखता कि स्कूलों द्वारा सुविधाएँ देने के नाम पर उन से मोटी रकम हर महीने ऐंठी जा रही है और फिर सुविधाएँ बच्चों को ज़िन्दगी से दूर कर रही हैं. उन्हें सर्दी, धूप और बरसात की छुअन का पता नहीं चलता. ललित जी ने उस लेख में एक अत्यंत रोचक घटना का जिक्र भी किया है जिससे पता चलता है कि कैसे स्कूल आज शिक्षा मंदिर न होकर शिक्षा कि दुकानों में तब्दील हो गया है, लिखते हैं,
“दूसरी कक्षा के एक बच्चे को स्कूल से दस कॉपियों का सेट ज़बरन खरीदना पड़ा। इन कॉपियों का कवर गुलाबी रंग का था। बच्चा पास होकर तीसरी कक्षा में आ गया लेकिन उसके पास चार गुलाबी कॉपियाँ खाली रह गईं। स्कूल ने बच्चे के माँ-बाप को तीसरी कक्षा के लिए पंद्रह कॉपियों का नया सेट खरीदने के लिए बाध्य किया। पिता ने कहा कि हम ग्यारह कॉपी लेंगे क्योंकि चार कॉपी पिछले साल की बची हुई हैं। स्कूल प्रशासन ने साफ़ मना कर दिया और कारण बताया कि तीसरी कक्षा में गुलाबी कवर की नहीं बल्कि पीले कवर की कॉपियाँ चलती हैं।‘
अगली समस्या उनके शब्दों में कैलकुलेटर उत्पन्न करने की है. आज चरित्र निर्माण, शारीरिक सौष्ठव, अनुशासन, आज्ञापालन, बड़ों का आदर इत्यादि शिक्षा के ऐसे तत्व हैं जिन्हें आज नकार दिया गया है और सभी मार्क्स (अंक) की पर्वत लांघने में लगे हैं. ललित जी कहते हैं कि “मैं उन बच्चों में से अधिकांश को कैल्कुलेटर्स ही मानता हूँ जो 90% से ऊपर अंक लाते हैं! आज इतने अंक लाने वालों की तो बाढ़ आई हुई है”. पिछले ही दिनों एक अति प्रतिष्ठित कॉलेज ने नामांकन में शत प्रतिशत अंक की मांग रख दी थी,  और कई बार तो उनके बहुत सारे नियम कानून को मानने पर यह शतप्रतिशत का भी बंधन तोड़ देता है. एक कॉलेज ने नामांकन के लिए अपनी शर्त कुछ इस प्रकार रखी थी, बी.कॉम ऑनर्स में नामांकन के लिए कट-ऑफ ९२% था, अगर बारहवीं के विषयों में गणित न हो तो ८% और बढ़ा दिया गया था और ये मामला यहीं नहीं रुका, एक और किसी विषय कि बात थी जिसके कि न होने पर ५% और ज्यादा चाहिए था, अब कोई १०५% कैसे लाएगा, ये मेरी समझ से पड़े था.  हर बच्चे की अपनी विशेषताएँ होती हैं. शिक्षातंत्र का कर्तव्य यह है कि वह हर बच्चे की नैसर्गिक योग्यता को खोजे और उसे निखारे. पर आज पाँच साल की उम्र से ही बच्चे आई.आई.टी; आई.आई.एम; सी.ए. और ऐम्स की दौड़ में दौड़ना शुरु कर देते हैं। इसीलिए बेचारे पतंग उड़ाने जैसी सामान्य कला और खेल भी नहीं सीख पाते.
मैं उनकी लेख का एक और हिस्सा ज्यों का त्यों रखता हूँ, जिसमे उन्होंने इस व्यवस्था की  सच्चाई दिखानी चाही है,
प्रोजेक्ट और मॉडलबनाना भी आज के स्कूल सिस्टम की एक बड़ी बीमारी है। शिक्षक, छात्र, अभिभावक और प्रिंसिपल सभी जानते हैं कि नब्बे प्रतिशत प्रोजेक्ट्सबाहर की दुकानों से खरीदे जाते हैं और स्कूल में अपने नाम से जमा कराए जाते हैं। इससे बड़ा मज़ाक और क्या होगा भला? छात्र सोचता है कि शिक्षक को क्या पता चलेगा कि ये प्रोजेक्ट मैंने नहीं बनाया बल्कि रुपए देकर खरीदा हैशिक्षक सब कुछ जानते हुए भी छात्र को अच्छे अंक देना अपनी मजबूरी मानता हैअभिभावक इन खरीदे गए झूठे अंकों के आधार पर भी अपना सीना चौड़ा करने में नहीं शर्मातेऔर स्कूल प्रशासन इन सब बातों को जानते हुए भी अपने स्कूल को सबसे बेहतर बताने की कोशिश करते हैं। ये बिल्कुल तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाता हूँवाली बात है। सबका फ़ायदा होना चाहिए भाई, शिक्षा-विक्षा जाए भाड़ में। ये मज़ाक और अंधापन नहीं तो और क्या है?
वस्तुतः आज शिक्षा व्यापारियों कि गिरफ्त में है और हम उनकी. हमारी सोच भी आज बाजारवाद कि गिरफ्त में है जिसका नतीजा होता है कि शिक्षा के दो टुकड़े होते हैं एक ए.सी., स्विमिंग पूल वाली स्कूल की शिक्षा और एक पंखे और तालाब वाली स्कूल की. इसी पैसों कि होड़ का नतीजा है बच्चे इंसानियत कमाना न सीख लाभ कमाना सीखने लगते हैं और फिर लाभ यदि भ्रष्टाचार से ही क्यों न हो...

बहरहाल, वो तो बदलेंगे नहीं तो बदलने कि जिम्मेदारी किसकी है ये मुझे नहीं लगता कि शब्दतः कहने कि जरूरत अब भी है.

साभार- ललित कुमार
(http://dashamlav.com/1476)
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Sunday, May 13, 2012

मदर्स डे

आज मदर्स डे है.मैं व्यक्तिगत तौर पर प्रेम के किसी भी रूप की अभिव्यक्ति के लिए  किसी दिन-विशेष मात्र का पक्षधर नहीं हूँ. मैं समझता हूँ ये बाजारवाद की मांग हो सकती है, पर क्या समय के बदलते सुर ने इसे हमारे समाज की मांग भी बना दी है ?  अगर ऐसा है तो फिर से विचार करने की ज़रूरत दीख पड़ रही है. हमारे यहाँ  "माँ" सिर्फ और सिर्फ हमारी उत्पत्ति का माध्यम मात्र नहीं है, हमारी श्रीष्टिकर्ता हैं, व्यक्तित्व निर्माण की नींव हैं. यह एक ऐसा रिश्ता है जो पवित्रतम है. इस भूलोक पर अगर कोई ईश्वर की कल्पना करे तो उसे "माँ" में पाया जा सकता है. तभी तो हर उस उस जीव को या प्रकृतिक संरचना पर्यंत को हमने "माँ" कहकर पुकारा है जिसपर असीम श्रद्धा रहा हो. गाय और गंगा भी हमारी माँ हैं. 


 क्या किसी एक दिन का मेला, उपहार का आदान-प्रदान  इस प्रेम को मापने के लिए काफी है?  एक दिन क्या, अगर अपनी समस्त उर्जा से अपने पूरे जीवन उनकी आराधना करें तो भी उनके प्रसव पीड़ा तक का ऋण  नहीं उतार पाएंगे."माँ" शब्द सुनने में उनकी ह्रदय की तरह ही सरल है पर उसकी गहराई किसी महासागर से कम नहीं. कुछ लोग ये कह सकते हैं की ये सारी बातें समझते हुए भी इस दिन को मनाने में क्या बुराई है... कोई बुराई नहीं पर सिर्फ इस दिन को मनाने में बुराई है. हम एक दिन चंद पैसों से कुछ उपहार स्वरुप खरीदकर भेट कर दें, चाहे और बाकी दिन वो वृद्धाश्रम में ही क्यों न पड़ी रहे, चाहे और बाकी दिन उनके पास तक जाने के लिए हमारे पास फुर्सत न हो, बुराई तब है, परेशानी तब है. वो हर पल , हर क्षण हमारी प्रेम और श्रद्धा पाने की हकदार हैं, सिर्फ और सिर्फ किसी दिन-विशेष पर नहीं. और प्रेम प्रदर्शित करने के लिए बाजारू हथकंडो की जरुरत भी नहीं, स्नेह से भरे नेत्र, और सम्मान से भरे ह्रदय ही काफी है. आज समय जिस तरह से सुर बदल रहा है, कुछ चिंता अवस्य है की क्या प्रेम  का यह पवित्रतम स्वरुप भी अपनी गरिमा खो देगा. 



हाँ, जिन्होंने जाने अनजाने अपनी माँ को कष्ट पहुँचाया हो, उनकी अवहेलना की हो उनके लिए शुरुआत का आज एक दिन हो सकता है... आज  के इस भाग-दौर के जीवन में अगर किसी कारण या मजबूरी वश आप अपेक्षित समय नहीं दे पाते तो आज एक शुरुआत हो सकती है...मगर ध्यान रहे कि माँ को रूखे मन से दिए गए उपहार से अधिक आपका स्नेह और सम्मान प्रिय  होगा. 




Saturday, March 24, 2012

बिहार दिवस

अभी हाल ही में बिहार ने अपने सौ साल पूरे किये. इसी अवसर पर १-२ दिनों पहले बिहार दिवस भी मनाया गया. इतिहास के पन्नो पर भी ये जगह इस नाम से शायद न मिले मगर अपना वजूद ज़ुरूर रखता है. मौर्य और गुप्त साम्राज्य हमारे यहाँ के हैं, कौटिल्य हमारे यहाँ के हैं, नालंदा विश्वविद्यालय हमारे यहाँ था (फिर बन रहा है)... इतिहास के पन्नो से निकलकर आसपास देखते हैं तो माँ गंगा कल-कल बहती दीखती हैं, बोधगया , बुद्धों का पवित्र स्थल दीखता है. राजनैतिक पटल पर राजेंद्र प्रसाद, हमारे प्रथम राष्ट्रपति शीर्षस्थ पर काबिज हैं..."जयप्रकाश" आन्दोलन है...आदि-२. साहित्य में महाकवि विद्यापति,  राष्ट्रकवि दिनकर हैं, बहुचर्चित नागार्जुन और एक लम्बी फेहरिस्त है.
मगर ये भी एक सच्चाई है की ये प्रान्त गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा और गुंडागर्दी लेकर भी बहुत (बद)नाम रहा. खास तौर पर बीसवीं सदी के आखिरी कुछ दशकों ने इसे काफी पीछे धकेल दिया. लोग अपना परिचय देने में कतराने लगे. "बिहारी" संबोधन न होकर गाली हो गया...जिम्मेदार कौन लोग हैं , नाम गिनों तो बहुत लम्बी सूची हो जाये पर हम नागरिक भी ज़िम्मेदार हैं जो अपनी पहचान छुपाते हैं, जिन्हें अपने इतिहास पर गर्व नहीं हैं. अपने वर्तमान पर विश्वास नहीं है और न अपने भविष्य पर भरोसा, वो विशेषतः जो एक सम्माननीय स्थान रखते हुए भी अपनी पहचान छुपाते हैं. 
बहरहाल, अब स्थिति बदलती दीख रही है. मैं किसी राजनैतिक पार्टी विशेष का नुमाइंदा नहीं हूँ पर पिछले चंद सालों में इस नयी सरकार ने आस जगायी है, लोग अपनी पहचान बताने लगे हैं. अभी वक़्त लगेगा पर इस राह पे चलते रहे तो "बिहारी" शब्द गाली न होकर देश को चलाने वाली गाड़ी हो जाएगी. सभी देशवाशियों को हमारा प्रणाम, आपसे सहयोग की अपेक्षा है. और समस्त बिहारवासियों को ,प्रवासियों को भी (एक शब्द में बिहारियों को) बहुत-२ बधाई.

मैं वेबसाइट का पता भी लिख दे रहा हूँ.
http://bihardiwas.in/