शिक्षा क्या है और ये क्यों जरूरी है? क्या साक्षरता ही शिक्षा का मापदंड
है? ऐसे कई सवाल मन में उठते हैं और अब तो हमें शिक्षा का अधिकार भी मिल चुका है,
बहुत सारे स्कूल, कॉलेज खुल चुके हैं. कई विद्यालय, महाविद्यालय बने, महाविद्यालय
विश्वविद्यालय बन गया और फिर विश्वविद्यालय, केन्द्रीय विश्वविद्यालय बनने कि होड़
में लग गया. सरकार कि कई नीतियों के तहत शिक्षण संस्थानों में आरक्षण भी है जिससे
कि समाज का कोई भी तबका शिक्षा से वंचित न रहे. प्रारंभिक स्तरों पर भी शिक्षा को
जन-जन में लाने के लिए सरकार के पास अपने स्कूल हैं, कई नीतियां हैं, वो कितने
कारगर हैं इस पर अभी विचार नहीं करूँगा. हम और आप भी अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे
स्कूल में दाखिला करवाने को अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तत्पर रहते हैं. पर सवाल
उठता है ये हाय-तौबा क्यों?
यह एक बड़ा गंभीर प्रश्न है. कल ललित कुमार (प्रणेता- कविता कोष) का इसी
विषय पर एक लेख पढ़ रहा था जहाँ उन्होंने शिक्षा की मूल भावना के बारे में बताने कि
कोशिश की और एक बहुत सूक्ष्म और समीचीन विषय की ओर भी द्दृष्टि ले गए कि कैसे
शिक्षा आज शिक्षाविदों के हाथों से से फिसलते हुए बाज़ार के हाथों में जा रही है और
हम इसे काल कवलित होते हुए देख रहे हैं. वो लिखते हैं कि
“शिक्षा के यूं तो कई लक्ष्य हो सकते हैं –लेकिन शायद सबसे अधिक मान्य
लक्ष्य दो हैं: एक तो व्यक्ति को एक बेहतर इंसान व नागरिक बनाना और दूसरे उसे
आजीविका कमाने के लिए तैयार करना. हम
सभी जानते हैं कि मानव एक सामाजिक प्राणी है। प्राणी है, इसलिए जीवित रहने के लिए भोजन
इत्यादि तो वह किसी भी तरह जुटाएगा ही क्योंकि यही प्रकृति का नियम है।इसका आशय यह है कि जीवित रहने के
लिए प्राणी को प्रकृति ने तैयार किया हुआ है; लेकिन
प्रकृति ने प्राणी को सामाजिक रहने के लिए तैयार नहीं किया और यही काम शिक्षा को करना होता है.”
मुझे नहीं लगता कि इस विषय पर मेरे साथ कोई भी असहमत होंगे कि इस तरह शिक्षा का
मूल उद्देश्य एक बेहतर इंसान और नागरिक बनाना होना चाहिए न कि पेट मात्र पालने कि
विधि क्यूंकि उतना ज्ञान तो प्रकृति ने और जीव-जंतुओं को भी दे रखा है बस हमारा
सामाजिक बोध ही हमें उनसे अलग करता है.
पर क्या आज हम बच्चों को उस तरह कि शिक्षा दिला पा रहे
हैं? शिक्षा व्यापारियों ने आज प्रारंभिक कक्षाओं को भी छोटे-२ खंडो में बाँट दिया
है ताकि जल्द से जल्द उनकी कमाई शुरू हो सके और उन कक्षाओं में नामांकन के लिए ऐसी
भीड़ और ऐसा तमाशा होता है जितना आज तक मेरे नामांकन प्रक्रियाओं को कुल मिलाकर भी
नहीं हुआ. अभिभावक केवल इस बात से खुश हैं कि उनके बच्चे बोलना सीखने से पहले
अंग्रेजी के दो-चार शब्द सीख गए, वो सिर्फ इस बात से खुश हैं कि उनके बेटे-बेटी कि
स्कूल में ए.सी. है और ढेर सारी सुविधाएं हैं. मुझे ये समझ नहीं आता कि उन्हें ये
क्यों नहीं दीखता कि स्कूलों द्वारा सुविधाएँ देने के नाम पर उन से मोटी रकम हर
महीने ऐंठी जा रही है और फिर सुविधाएँ बच्चों को ज़िन्दगी से दूर कर रही हैं.
उन्हें सर्दी, धूप
और बरसात की छुअन का पता नहीं चलता. ललित जी ने उस लेख में एक अत्यंत रोचक घटना का जिक्र भी किया है जिससे
पता चलता है कि कैसे स्कूल आज शिक्षा मंदिर न होकर शिक्षा कि दुकानों में तब्दील
हो गया है, लिखते हैं,
“दूसरी कक्षा के एक बच्चे को स्कूल से दस कॉपियों का
सेट ज़बरन खरीदना पड़ा। इन कॉपियों का कवर गुलाबी रंग का था। बच्चा पास होकर तीसरी
कक्षा में आ गया लेकिन उसके पास चार गुलाबी कॉपियाँ खाली रह गईं। स्कूल ने बच्चे
के माँ-बाप को तीसरी कक्षा के लिए पंद्रह कॉपियों का नया सेट खरीदने के लिए बाध्य
किया। पिता ने कहा कि हम ग्यारह कॉपी लेंगे क्योंकि चार कॉपी पिछले साल की बची हुई
हैं। स्कूल प्रशासन ने साफ़ मना कर दिया और कारण बताया कि तीसरी कक्षा में गुलाबी
कवर की नहीं बल्कि पीले कवर की कॉपियाँ चलती हैं।‘
अगली समस्या उनके शब्दों में कैलकुलेटर उत्पन्न करने की
है. आज चरित्र निर्माण, शारीरिक
सौष्ठव, अनुशासन, आज्ञापालन, बड़ों का आदर इत्यादि शिक्षा के ऐसे तत्व हैं जिन्हें आज
नकार दिया गया है और सभी मार्क्स (अंक) की पर्वत लांघने में लगे हैं. ललित जी कहते
हैं कि “मैं उन बच्चों में से अधिकांश को कैल्कुलेटर्स ही मानता हूँ जो 90% से ऊपर अंक लाते हैं! आज इतने
अंक लाने वालों की तो बाढ़ आई हुई है”. पिछले ही दिनों एक
अति प्रतिष्ठित कॉलेज ने नामांकन में शत प्रतिशत अंक की मांग रख दी थी, और कई बार तो उनके बहुत सारे नियम कानून को
मानने पर यह शतप्रतिशत का भी बंधन तोड़ देता है. एक कॉलेज ने नामांकन के लिए अपनी
शर्त कुछ इस प्रकार रखी थी, बी.कॉम ऑनर्स में नामांकन के लिए कट-ऑफ ९२% था, अगर
बारहवीं के विषयों में गणित न हो तो ८% और बढ़ा दिया गया था और ये मामला यहीं नहीं
रुका, एक और किसी विषय कि बात थी जिसके कि न होने पर ५% और ज्यादा चाहिए था, अब
कोई १०५% कैसे लाएगा, ये मेरी समझ से पड़े था. हर
बच्चे की अपनी विशेषताएँ होती हैं. शिक्षातंत्र
का कर्तव्य यह है कि वह हर बच्चे की नैसर्गिक योग्यता को खोजे और उसे निखारे.
पर आज पाँच साल की उम्र से ही बच्चे आई.आई.टी; आई.आई.एम; सी.ए.
और ऐम्स की दौड़ में दौड़ना शुरु कर देते हैं। इसीलिए बेचारे पतंग उड़ाने जैसी सामान्य
कला और खेल भी नहीं सीख पाते.
मैं उनकी लेख का एक और हिस्सा ज्यों का त्यों रखता हूँ,
जिसमे उन्होंने इस व्यवस्था की सच्चाई
दिखानी चाही है,
““प्रोजेक्ट और मॉडल” बनाना भी आज के स्कूल सिस्टम की एक बड़ी बीमारी है। शिक्षक, छात्र, अभिभावक और प्रिंसिपल –सभी जानते हैं कि नब्बे प्रतिशत “प्रोजेक्ट्स” बाहर की दुकानों से खरीदे जाते हैं और स्कूल में अपने नाम से जमा कराए जाते हैं। इससे बड़ा मज़ाक और क्या होगा भला? छात्र सोचता है कि शिक्षक को क्या पता चलेगा कि ये प्रोजेक्ट मैंने नहीं बनाया बल्कि रुपए देकर खरीदा है… शिक्षक सब कुछ जानते हुए भी छात्र को अच्छे अंक देना अपनी मजबूरी मानता है… अभिभावक इन खरीदे गए झूठे अंकों के आधार पर भी अपना सीना चौड़ा करने में नहीं शर्माते… और स्कूल प्रशासन इन सब बातों को जानते हुए भी अपने स्कूल को सबसे बेहतर बताने की कोशिश करते हैं। ये बिल्कुल “तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाता हूँ” वाली बात है। सबका फ़ायदा होना चाहिए भाई, शिक्षा-विक्षा जाए भाड़ में। ये मज़ाक और अंधापन नहीं तो और क्या है?”
““प्रोजेक्ट और मॉडल” बनाना भी आज के स्कूल सिस्टम की एक बड़ी बीमारी है। शिक्षक, छात्र, अभिभावक और प्रिंसिपल –सभी जानते हैं कि नब्बे प्रतिशत “प्रोजेक्ट्स” बाहर की दुकानों से खरीदे जाते हैं और स्कूल में अपने नाम से जमा कराए जाते हैं। इससे बड़ा मज़ाक और क्या होगा भला? छात्र सोचता है कि शिक्षक को क्या पता चलेगा कि ये प्रोजेक्ट मैंने नहीं बनाया बल्कि रुपए देकर खरीदा है… शिक्षक सब कुछ जानते हुए भी छात्र को अच्छे अंक देना अपनी मजबूरी मानता है… अभिभावक इन खरीदे गए झूठे अंकों के आधार पर भी अपना सीना चौड़ा करने में नहीं शर्माते… और स्कूल प्रशासन इन सब बातों को जानते हुए भी अपने स्कूल को सबसे बेहतर बताने की कोशिश करते हैं। ये बिल्कुल “तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाता हूँ” वाली बात है। सबका फ़ायदा होना चाहिए भाई, शिक्षा-विक्षा जाए भाड़ में। ये मज़ाक और अंधापन नहीं तो और क्या है?”
वस्तुतः आज शिक्षा व्यापारियों कि गिरफ्त में है और हम
उनकी. हमारी सोच भी आज बाजारवाद कि गिरफ्त में है जिसका नतीजा होता है कि शिक्षा
के दो टुकड़े होते हैं एक ए.सी., स्विमिंग पूल वाली स्कूल की शिक्षा और एक पंखे और
तालाब वाली स्कूल की. इसी पैसों कि होड़ का नतीजा है बच्चे इंसानियत कमाना न सीख
लाभ कमाना सीखने लगते हैं और फिर लाभ यदि भ्रष्टाचार से ही क्यों न हो...
बहरहाल, वो तो बदलेंगे नहीं तो बदलने कि जिम्मेदारी किसकी है ये मुझे नहीं लगता कि शब्दतः कहने कि जरूरत अब भी है.
बहरहाल, वो तो बदलेंगे नहीं तो बदलने कि जिम्मेदारी किसकी है ये मुझे नहीं लगता कि शब्दतः कहने कि जरूरत अब भी है.
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